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कविता

भाषा

बसंत त्रिपाठी


मेरे पास
कुछ दुख हैं
बहुत सारा गुस्सा है
जिसे बाँध रखा है
मेरी ही सुविधाओं की समझाइश ने

थोड़ा सब्र है
थोड़ी हड़बड़ी है
कुछ उनींदी रातें
बहुत-से पराजित दिन हैं
और चिढ़ी हुई-सी कई शामें हैं

अधूरे गीत हैं कुछ
जरूरी रीत हैं कुछ
सबसे अंत में खड़े होने की एक सहमी मुद्रा है
कुछ सवाल भी
कि जिसके उत्तर दिए जाते बार-बार
लेकिन हर बार अधूरे
कई सारे लोगों के चेहरे हैं
नजरों ने जिनके दुखों को छुआ
और सपनों में देर तक सुबकते रहे

मैं अपनी प्यास को तुम्हारे रिसते घावों और
भागते पाँवों में
रखना चाहता हूँ

मेरे पास
एक भाषा है
जागे सोए बोलते बड़बड़ाते
चुप हो जाते
शब्दों की भाषा

 


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